घोर अंधियार हैं उजास मांगता हैं देश
पतझर छाया मधुमास मांगता हैं देश
कुर्बानियों का अहसास मांगता हैं देश
एक बार फिर से सुभाष मांगता हैं देश
चंद काले पन्ने फाड़े गए हैं किताब से
इतिहास को सजाया खादी ओ गुलाब से
पूछता हूँ क्यों सुभाष का कोई पता नहीं
कैसे कहूँ बीती सत्ता की कोई खता नहीं
एकाएक वो सुभाष जाने कहाँ खो गए
और सरे कर्णधार मीठी नींद सो गए
मानो या न मानो फर्क हैं साजिश ओ भूल में
कोई षड़यंत्र छुपा हैं समय की धूल में
गाँधी का अहिंसा मन्त्र रोता चला जा रहा
देखिये ये लोकतंत्र सोता चला जा रहा
आजादी की आत्म-हत्या पे क्यों सभी मौन हैं
इसकी खुद-कशी के जिम्मेदार कौन-कौन हैं
अभी श्वेत खादी की ये आंधी नहीं चाहिए
दस-बीस साल अभी गाँधी नहीं चाहिए
खोये हुए शेर की तलाश मांगता हैं देश
एक बार फिर से सुभाष मांगता हैं देश
नोटों की गड्डियाँ उछाले जाने पर मंदिर जैसी संसद के अपमान के विरुद्ध...
संसद की अस्मिता की ऐसे उठी डोलियाँ
कोठे पे तवायफों की जैसे लगे बोलियाँ
रोते रहे गाँधी उस नोट पे जड़े हुए
संसद की देहरी पे दोषी से खड़े हुए
लोकतंत्र की कराहें आंसुओं के घुल गई
संविधान की ऋचाएं गड्डियों में तुल गई
संसद का स्वाभिमान तार-तार कर दिया
संविधान द्रोपदी सा शर्मसार कर दिया
.
नेता जी पास होता तख्त हिन्दुस्तान का
विश्व देखता जूनून सख्त हिन्दुस्तान का
मुल्क का विधान बेजुबान नहीं होता यूँ
बैसाखी पे आज हिन्दुस्तान नहीं होता यूँ
फैसला वहीँ पे होता संसद की आहों का
वहीँ पे हिसाब होता सबके गुनाहों का
ऐसे लोकशाहों का विनाश मांगता हैं देश
एक बार फिर से सुभाष मांगता हैं देश
दे दी हमे आजादी बिना खडग बिना ढाल....साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल.....ये गीत उन तमाम क्रांतिकारियों के बलिदान को तमाचा हैं जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति माँ भारती को आजाद करने में दे दी...तब कलम कहती हैं.....
ढाल ओ खडग बिन गाथा को गढा गया
आजादी का स्वर्ण ताज खादी से मढा गया
लालकिले में लगादी कियारियां गुलाब की
तारे जाके बैठे हैं जगह पे आफ़ताब की
आजादी की नींव को लहू से था भरा गया
मिली नहीं भीख में आजादी को वरा गया
कितने जांबाज बाज धरती में गड गए
किन्तु सरे श्रेय को लेके कपोत उड़ गए
जिन्हें परवाह नहीं थी किसी अनुरोध की
बेवा सिंहनी की पीठ पे बंधे अबोध की
काला-पानी जेल की दीवारें चीखती रहीं
सावरकर के जख्म की दरारें चीखती रहीं
जिनके बहीखाते कटी गर्दनों से भर गए
कहते हो आप के वो चरखे से डर गए
अब सही सही इतिहास मांगता हैं देश
एक बार फिर से सुभाष मांगता हैं देश
आजादी के समय ब्रिटिश हुकूमत के गवर्नर लोर्ड माउन्ट बेटन और नेहरु जी के बीच एक अनुबंध हुआ जिसमे नेता जी को "युद्ध-अपराधी" घोषित कर जिन्दा या मुर्दा अंग्रेजो को सौंपने की शर्त रखी गई...तब कहता हूँ....
ऐसे अनुबंध छिपे कागजों की पर्त में
जिनमे सुभाष बिके आजादी की शर्त में
मौन दस्तावेजों की वो स्याही चीखती रही
उन्हें पास आती मात्र सत्ता दीखती रही
नींव की जो शख्स ईंट बुनियादी हो गया
आजादी मिली तो युद्ध अपराधी हो गया
जिसके मुकाबले में आसमान बोना था
अपराधी हुआ जिसे राष्ट्र-पिता होने था
अनुबंध के वो प्रष्ठ फाड़े जाने थे तभी
आँखों में गोरो के पेन गाडे जाने थे तभी
बोला होता बेटन से नेहरु जी ने डांट कर
देखा जो सुभाष को तो रख देंगे काट कर
शर्म से वो कागज़ भी आंख मीचता रहा
किन्तु उन्हें दिल्ली वाला तख्त खींचता रहा
ऐसे शासकों का वन-वास मांगता हैं देश
एक बार फिर से सुभाष मांगता हैं देश
545 सांसद मिलकर एक देश को एक करार के लिए सहमत नहीं कर पा रहे हैं....वहां गुलाम देश के एक गुलाम भारतीय ने तीन-तीन मुल्कों के राष्ट्राध्यक्षों को ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध युद्ध के लिए तयार किया था.....सोचिये यदि आज सत्ता बोस जैसे किसी नेता के हाथ में होती तो हमारी स्थिति क्या रही होती......
माँगा नहीं दिल्ली वाला राज भी सुभाष ने
चाहा नहीं मोतियों का ताज भी सुभाष ने
नेता जी का सपना था बेडियों को तोड़ना
भारत के नाम को स्वाधीनता से जोड़ना
भारती के आंसुओं से आँख जिसकी खारी थी
माँ की हर चोट जिसकी आत्मा पे भरी थी
बोस एक नाम हैं अंधेरों में चराग का
गुलामी के आंसुओं में दबी हुई आग का
1945 में एक विमान दुर्घटना में नेता जी को मृत घोषित किया गया. 1947 को हुए अनुबंध में फिर ये शर्त क्यों रखी गई की नेता जी भारत आते हैं तो उन्हें अंग्रेजी हुकूमत को सौंपना होगा.....इसका आशय यही हैं की अंग्रेज भी जानते थे की नेता जी जीवित हैं और हमारे पूर्व प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु जी भी जानते थे की सुभाष जिन्दा हैं.....फिर ये विमान दुर्घटना का झूठ क्यों...???
कहते हो बैठे थे सुभाष जिस विमान में
हो गया हैं ध्वस्त वो विमान ताइवान में
सूर्य के समक्ष वक्ष तान घटा छा गई
भाग्य की कलम स्याही से कहर ढा गई
दिव्य क्रांति-ज्योत को अँधेरा आके छल गया
बोलते हो सूर्य-पुत्र चिंगारी से जल गया
आपसे वो जली हुई लाश मांगता हैं देश
एक बार फिर से सुभाष मांगता हैं देश
19 comments:
घोर अंधियार हैं उजास मांगता हैं देश
पतझर छाया मधुमास मांगता हैं देश
कुर्बानियों का अहसास मांगता हैं देश
एक बार फिर से सुभाष मांगता हैं देश
............बहुत जीवंत आह्वान........
hi! dear Saurabh Bhaiya,
it's not only good, best of the best.
rajeev kumar
i m quit impressed with these poems
aaj ke yug ki jarrorat ek nahi aneko subhash hain
To Organize A Hit Kavi-Sammelan
पूरी तरह से व्यवसायी हो गए हैं लगता, और ये क्या आप बता रहे हैं,,सुभाष और संसद के बारे में,,इनसे हम भी अवगत हैं,,अगर माहौल को तुकांत में बांधना ही कविता है,,तो सभी को कवि हो जाना चाहिये,,मगर भूकंप में गिरे घर को गरीब संभालता है,,और आपकी कविता के लिए नया विषय बन जाता है..शर्म खाइए सौरभ जी,,पूरा तमाशा कर दिया है साहित्य का,
कुछ करना है तो जाकर करिए,, ये कागजों को मत बर्बाद कीजिये,,
निशांत कौशिक,,
kaushiknishant2@gmail.com
बहुत सुन्दर और जीवंत रचना है।बधाई....
अति उत्तम !!!!!!!!
यूँ ना सब पर उँगलियाँ उठाया करो...
उठाने से पहले खुद कमाया करो...!!
आपके अनुसार हल्दीदीघाटी, बुंदेलो हरबोलो के मुंह भी कविता नही है...!!
बहुत ही सुन्दर रोंगटे खड़े कर देने वाली अमर कविता ...
बहुत ही सुन्दर रोंगटे खड़े कर देने वाली अमर कविता ...
सच्चाई को उजागर करती है आपकी कविता और सोचने पर मजबूर करती है बहुत खूब भाई जी
सच्चाई को उजागर करती है आपकी कविता और सोचने पर मजबूर करती है बहुत खूब भाई जी
सच्चाई को उजागर करती है आपकी कविता और सोचने पर मजबूर करती है बहुत खूब भाई जी
सच्चाई को उजागर करती है आपकी कविता और सोचने पर मजबूर करती है बहुत खूब भाई जी
Bahut hi sundar... Jis bat ko sayad aaj hum bhul gye h...aapne use jivant kr diya sir...!!
Jo khadi ki chamk me shaf nikl gye.....
Unhe katghre Me LA khada kr diya...
Sir ji
Nice sir
Super poem sir..Jai hind.
nice
badhiya
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